श्रुति व्यास
पिछले एक वर्ष में पहले भारत, फिर श्रीलंका और उसके बाद इजराइल ने अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मनाई। सबका अपना-अपना इतिहास रहा है, जिसमें अशांति और आक्रोश, पुनर्निर्माण के संकल्प और अतीत की विभीषिकाओं को भुला कर सुनहरे कल की ओर कदम बढ़ाने के प्रयास शामिल हैं। परंतु इन सबसे गुजर कर आज ये तीनों देश ऐसे मुकाम पर हैं, जिसमें उनका वर्तमान और भविष्य दोनों अनिश्चितताओं से भरा हुआ है। भारत ने अपनी स्वतंत्रता की प्लैटिनम जुबली बहुत जोर-शोर से मनाई। हर आयोजन में राष्ट्रवाद का तडक़ा लगाया गया। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ थीम पर असंख्य कार्यक्रम हुए। घरों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराए गए, दीवारों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के चित्रों और उनकी जीवन गाथाओं से सजाया गया और आकाश को तिरंगे के रंगों से रंग दिया गया। कुल मिलाकर, चारों ओर उत्साह और जश्न का माहौल था।
दूसरी ओर, अपने 75वें स्वतंत्रता दिवस (चार फरवरी 2023) पर श्रीलंका के पास उत्सव मनाने का कोई कारण नहीं था। आर्थिक दृष्टि से देश कंगाल हो चुका है और जनता निराश और हताश होने के साथ-साथ अपने शासकों से बेहद नाराज़ भी है। श्रीलंका ने 75वीं वर्षगांठ मनाने के समारोह पर 20 करोड़ श्रीलंकाई रुपए फूंक दिए। इस पर आम लोगों और सामाजिक कार्यकर्ताओं दोनों ने रोष व्यक्त किया। उनका कहना था कि जब देश बुरे समय से गुजऱ रहा है तब समारोहों पर धन लुटाना घोर फिजूलखर्ची है। समारोह कड़ी सुरक्षा में आयोजित किया गया। जहां तक नागरिकों का सवाल है, वे कतई गर्वित या प्रसन्न अनुभव नहीं कर रहे थे। वे परेशानहाल, आक्रोशित और भूखे थे।
गत 25 अप्रैल को इजराइल ने आजादी की 75वीं सालगिरह मनाई। इजराइल एक ऐसा देश है, जिसने अपने अतीत के दुर्दिनों और भयावह घटनाक्रम को भुलाकर मेहनत और हिम्मत से युद्धों, गरीबी और अकालों पर विजय प्राप्त की और मध्य-पूर्व और पूरी दुनिया में भी स्वंय को एक शक्तिशाली देश के रूप में स्थापित किया। परंतु अपनी आज़ादी के 75वें साल में देश मानों थम सा गया है। चारों ओर अराजकता और उथल-पुथल का बोलबाला है। राजनीतिक और सैनिक नेतृत्व लोगों का आह्वान कर रहा है कि वे राजनीति को परे रख कर एकता का प्रदर्शन करें परंतु इसका कोई असर नहीं हो रहा है। लोग जश्न मनाने के मूड में तो कतई नहीं हैं। देश बुरी तरह बंटा हुआ है। कई नागरिकों का कहना है कि उनके देश ने बाहरी दुश्मनों का तो सफलतापूर्वक मुकाबला कर लिया परंतु आतंरिक राजनीतिक और सामाजिक टकरावों से निपटना शायद उसके लिए मुश्किल होगा। सन 1948 में जब इजराइल ने स्वयं को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया था, उस समय उसके ही जनरलों ने चेतावनी दी थी कि उसका अस्तित्व बने रहने की संभावना केवल 50 प्रतिशत है। आज इजराइल एक अत्यंत समृद्ध देश है और अपने इतिहास में शायद सबसे ज्यादा सुरक्षित भी। परंतु वह एक चौराहे पर खड़ा है।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को घटाने के बेंजामिन नेतन्याहू की दक्षिणपंथी सरकार के प्रयासों के खिलाफ लोग जिस तरह से सडक़ों पर उतर आए हैं उससे देश के आतंरिक विभाजन सामने आ गए हैं और ऐसा लग रहा है कि 75 साल बाद भी लोगों में इस बारे में एकमत नहीं है कि इजराइल को किस तरह का देश होना चाहिए। आतंरिक टकराव देश के भविष्य के लिए खतरा बन गए हैं। देश में अनिश्चितता व्याप्त है। इजराइल में युवाओं का बहुमत है। देश की कुल आबादी, जो वर्तमान में करीब एक करोड़ है, के 2065 तक दो करोड़ हो जाने की संभावना है। पंरंतु देश बुरी तरह बंटा हुआ है। नेतन्याहू के नेतृत्व वाला गठबंधन सत्ता में बने रहने के लिए अति-दक्षिणपंथी धार्मिक दलों पर निर्भर है, जो तेजी से जोर पकड़ रहे सेटलर मूवमेंट में उलझे हुए हैं। इसी कारण सत्ताधारी गठबंधन अदालतों की स्वतंत्रता को सीमित करना चाहता है। उसका तर्क है कि अदालतें जनता की मंशा का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। देश की आबादी में अल्ट्रा-ऑर्थोडॉक्स (अति-कट्टरपंथी या अति-धार्मिक यहूदी) नागरिकों का प्रतिशत, जो अभी 13 है, सन 2065 तक 32 हो जाएगा।
इस वर्ग की न तो सेना में काम करने में रूचि हैं और ना ही वे अपने बच्चों को परंपरागत स्कूलों में पढ़ाते हैं। इससे मतदाता और बंट जाएंगे, राजनीति दक्षिणपंथ की ओर खिसक जाएगी और देश के उदारवादी-प्रजातांत्रिक चरित्र को खतरा उत्पन्न हो जाएगा। यह भी हो सकता है कि समय के साथ अल्ट्रा-ऑर्थोडॉक्स नागरिकों के मूल्यों में परिवर्तन आए, विशेषकर यदि उनमें से नौकरियां करने वालों और परंपरागत स्कूलों में पढऩे वालों की संख्या में वृद्धि हो। परंतु अगर ऐसा नहीं हुआ और देश में उदारवादी मूल्यों का क्षरण जारी रहा तो इससे उसकी समृद्धि खतरे में पड़ जाएगी। देश के पूंजीपति, कंप्यूटर पेशेवर और रचनात्मक कार्य करने वाले लोग अन्य देशों का रुख कर सकते हैं।
इजराइल की आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर ऐसा लग रहा था मानों वहां गृहयुद्ध शुरू हो सकता है। अगर ऐसा हुआ तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। इजराइल, मिस्र से 11 गुना अधिक समृद्ध है, उसके नोबेल पुरस्कार विजेताओं की संख्या चीन से ज्यादा है और वहां जितने टेक्निकल स्टार्टअप्स हैं, उतने दुनिया के उस क्षेत्र के किसी देश में नहीं हैं।
इजराइल ने भू-राजनीतिक बदलावों का बहुत अच्छी तरह से सामना किया है। शीतयुद्ध के अंत के बाद उसने सोवियत संघ से आए 10 लाख यहूदी प्रवासियों को अपने यहां जगह दी और इसके साथ ही अमेरिका से अपने निकट संबंध भी खऱाब नहीं होने दिए। इजराइल हमें यह सिखा सकता है कि गिर कर कैसे सम्हला जाए और कोई देश कैसे शक्तिशाली बन सकता है। वह स्व-विकास का रोल मॉडल भी है। परंतु उसका भविष्य उसकी राजनीति और उसके राजनीतिज्ञों पर निर्भर है। और इस पर भी कि वह उसके समक्ष उपस्थित कठिन चुनौतियों से कैसे मुकाबला करता है और कैसे यह सुनिश्चित करता है कि वह स्वयं को नष्ट न कर ले।