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जोशीमठ : आपदा में भी सियासत का छौंक

अरविंद शेखर
जोशीमठ की त्रासदी के बाद उत्तराखंड में सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों एक दूसरे पर आपदा को लेकर सियासत करने का इलजाम लगाने में जुटे हैं। हैरत की बात है कि दोनों ओर से राजनीति शब्द का इस तरह इस्तेमाल हो रहा है जैसे राजनीति कोई घृणास्पद चीज हो। राजनीतिक दल संभवत: राजनीति को महज आरोप, प्रत्यारोप या सत्ता के लिए तीन तिकड़म समझने की भूल कर रहे हैं। इसीलिए एक दूसरे को आपदा पर सियासत न करने की सलाह दे रहे हैं। सच तो यह है कि राजनीति न हो तो शायद पीडि़तों की आवाज ही दबा दी जाए।

राजनीति वोट लेकर सत्ता के लिए हो तो और बात है, लेकिन आपदा या संकट के समय जनता के मुद्दों को लेकर की जाए तो जनता को बहुत राहत पहुंच सकती है। उत्तराखंड में 2013 की आपदा के बाद तत्कालीन विपक्ष सरकार को न घेरता तो शायद लोगों को वैसा मुआवजा न मिल पाता, जो उन्हें मिला। नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री प्रो. अमत्र्य सेन ने अपने एक अध्ययन में चीन में पड़े अकालों का उदाहरण दिया है। 1960 में उत्तर चीन की 60 फीसद कृषि भूमि में बारिश नहीं हुई।

1958 से 1962 तक यह इलाका मौसम की मार के कारण सूखे व बाढ़ की त्रासदी झेलता रहा। जून, 1959 में हांगकांग में 760 मिमी. यानी 30 इंच बारिश दर्ज की गई। दक्षिणी चीन में भी ऐसा ही हुआ। इन सभी कारणों से चीन में अनाज उत्पादन बुरी तरह गिर गया। अध्ययन में साबित किया गया कि यह अकाल कम उत्पादन के कारण नहीं था, बल्कि उसके अनुचित वितरण से भी पैदा हुआ था। और सूचनाओं के अभाव या गलत सूचनाओं के चलते और भी भयावह हो गया। चीन में पड़े इन भीषण अकालों पर नजर डालें तो जहां शहरी आबादी ने अपनी जरूरत का अन्न पाने का हक बरकरार रखा था। गांवों में अधिकारियों ने अपने कम्यूनों की उपलब्धि बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के फेर में अधिक अनाज उत्पादन बताया। नतीजतन, किसानों के पास खुद के लिए अन्न नहीं बचा। अकाल भीषण हो गए।

सेन के विचार को विस्तार दें तो साफ है कि एकदलीय तानाशाही होने से चीजों व सूचनाओं पर सरकारी नियंत्रण ज्यादा होता है। ऐसे में सरकारी महकमे भी शासक दल के कोप से बचने के लिए ऐसी रिपोर्टे पेश करते हैं, जो सरकार के मनमाफिक हों और उसके लिए परेशानी न खड़ी करें। ऐसे में आपदा या अन्य त्रासदी को अफसर कम करके आंकते हैं, सरकार के कामों को जरूरत से ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं जबकि हकीकत कुछ और होती है। चीन में भी ही हुआ। अकाल की त्रासदी कई गुना बढ़ गई।

हमारे देश में लोकतंत्र है, और उत्तराखंड में विपक्ष आपदा के दौरान किसी इलाके में राहत न पहुंचने, सरकारी अमले के न पहुंचने या बदइंतजामी की बात उठाता है, तो सरकार को उसे गंभीरता से लेना चाहिए। इस तरह राजनीति के जरिए जनता की बड़ी सेवा हो सकती है। महात्मा गांधी से लेकर तक माओ तक ने राजनीति को जनसेवा का ही रूप बताया है। मगर पिछले कुछ दशकों में ‘राजनीति’ को गंदा और अस्पृश्य शब्द बना दिया गया है। एक पूरी पीढ़ी इस विचार से प्रभावित है जबकि राजनीति को ही समाज की दशा-दिशा तय करनी होती है। लोकतंत्र में विपक्ष की राजनीति ही सरकार पर दबाव बनाती है, और उसे फैसले लेने पर मजबूर करती है। ऐसे में राजनीति को अस्पृश्य मानना खुद को सच्चाई से काट लेना है।

इस साल उत्तराखंड में नगर निकायों के चुनाव होने हैं,  और अगले वर्ष लोक सभा के। ऐसे में सत्ता पक्ष और विपक्ष के अलावा सभी दलों की मजबूरी है कि जनता के दुखों को आवाज दें, पीडि़तों को मलहम लगाने का काम करें या चुनाव नतीजे भुगतने को तैयार रहें। वस्तुत: राजनीति स्टेटक्राफ्ट का हिस्सा होती है। राज्य का हर कदम राजनीतिक होता है। आपदा प्रबंधन या राहत के कार्य हों या और कुछ, जनतंत्र में राजनीतिक दलों या व्यक्तियों को राज्य के कदमों और नीतियों की आलोचना का अधिकार है। हां, आलोचना का मतलब छींटाकशी या छिछले आरोप लगाना नहीं होता। राजनीतिक दल हल्के या ओछे आरोप-प्रत्यारोप को राजनीति समझते हैं, तो उनका मानसिक दिवालियापन है।

लोकतंत्र में राजनीति अनिवार्य है। माना जाता है कि उसमें हर नागरिक को दखल देना चाहिए। आम नागरिक किसी वजह से अपनी बात नहीं कह पाता तो अभिजन वर्ग यानी राजनीतिक दलों को सक्रिय होना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में उन्हें लोकतंत्र का रखवाला यानी वॉचडॉग माना जाता है। मीडिया निष्पक्ष हो तो वह भी इसी तरह का काम करता है। आपदा राहत और पुनर्वास के कार्यों को लेकर राजनीतिक दल अगर जनता के हित में सडक़ पर उतरते हैं, हो रहे कामों में आ रही दिक्कतें उजागर करते हैं, सुझाव देते हैं, आशंकाएं जताते हैं, नीतिगत खामियों को लेकर कहते-बोलते हैं, तो उसमें कुछ गलत नहीं। विपक्ष के उठाए गए मुद्दों को ध्यान में रख सरकार अपनी नीतियों में सुधार ला सकती है। व्यावहारिक दिक्कतें दूर कर सकती है। इससे अंतत: आपदा पीडि़त जनता को लाभ ही होगा।

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