अजीत द्विवेदी
कर्नाटक के चुनाव नतीजों की जैसी व्याख्या भाजपा कर रही है या कम से कम उसके प्रवक्ता टेलीविजन की बहसों और सोशल मीडिया के विमर्श में जिस तरह से इसका बचाव कर रहे हैं वह भाजपा के लिए आत्मघाती हो सकता है। यह सही है कि उसने अपना वोट नहीं गंवाया है। वह अपना पारंपरिक 36 फीसदी वोट बचाए रखने में कामयाब रही है। लेकिन उसे समझना होगा कि यह वोट उसकी जीत की गारंटी नहीं है। त्रिकोणात्मक चुनाव में इतने वोट पर चुनाव जीता जा सकता है लेकिन किसी भी राज्य में आमने सामने के चुनाव में यह आंकड़ा बहुत कम है। कर्नाटक की तीसरी पार्टी जेडीएस ने पांच फीसदी वोट गंवाए तो कांग्रेस को भाजपा से 70 सीट ज्यादा मिल गई। भाजपा और कांग्रेस में सात फीसदी वोट का अंतर है लेकिन कांग्रेस को उससे दोगुने से ज्यादा सीटें मिली हैं। इसलिए 36 फीसदी वोट मिलने के नाम पर हर रणनीति का बचाव करना ठीक नहीं है। भाजपा को इस चुनाव से सबक लेना होगा और राजनीतिक मुद्दों से लेकर संगठन तक में अब तक आजमाए जा चुके नुस्खों पर नए सिरे से विचार करना होगा।
मिसाल के तौर पर भाजपा का चुनाव जीतने का एक नुस्खा यह है कि चुनाव से पहले मुख्यमंत्री बदल दो, मंत्रियों को बदल दो, ज्यादा से ज्यादा विधायकों की टिकट काट दो और नए चेहरों को मैदान में उतारो। कुछ राज्यों में यह रणनीति कारगर रही है लेकिन यह कोई रामबाण नुस्खा नहीं है, जो हर जगह काम करेगा। उत्तराखंड और गुजरात में यह योजना सफल रही थी लेकिन कर्नाटक में यह रणनीति पिट गई। भाजपा ने उम्र के हवाले बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाया था। उसको लग रहा था कि येदियुरप्पा को हटाने से उनके ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से भाजपा को मुक्ति मिल जाएगी, एंटी इन्कम्बैंसी भी खत्म हो जाएगी और नया चेहरा होने से लोगों में उम्मीद बंधेंगी। इस रणनीति पर अमल करते हुए भाजपा को यह ध्यान रखना चाहिए था कि येदियुरप्पा की जगह जो चेहरा लाया जा रहा है वह कितना लोकप्रिय है। इसी तरह एंटी इन्कम्बैंसी कम करने के लिए विधायकों या पूर्व प्रत्याशियों की टिकट काटी गई और राज्य की 224 में से 72 सीटों पर नए चेहरे उतारे गए। इन 72 में से 62 नए चेहरे चुनाव हार गए हैं। जाहिर है सिर्फ चेहरा बदलना पर्याप्त नहीं है। नया चेहरा कितना दमदार है यह ज्यादा अहम है।
लेकिन भाजपा इस पर विचार इसलिए नहीं करती है क्योंकि उसे लगता है कि एक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा ही काफी है, किसी दूसरे दमदार चेहरे की जरूरत नहीं है। इस सोच की सीमाएं भी कर्नाटक में दिखाई दे गई हैं। प्रधानमंत्री का चेहरा दांव पर लगाने के बावजूद भाजपा वहां कुछ नहीं कर पाई। प्रधानमंत्री का चेहरा भाजपा के काम नहीं आया क्योंकि स्थानीय स्तर पर जो चेहरे थे लोग उनसे नाराज थे। मोदी के चेहरे पर चुनाव लडऩे और जीतने के भरोसे में भाजपा ने अपने कई मजबूत नेताओं को किनारे किए, जिससे स्थानीय लोगों में नाराजगी बढ़ी। उनको अपना मुख्यमंत्री चुनना था, जबकि प्रचार गुजरात और उत्तर प्रदेश के नेताओं के चेहरे पर हो रहा था। कर्नाटक जैसे भाषायी अस्मिता वाले राज्य की संवेदनशीलता का जरा भी ध्यान रखा गया होता तो राष्ट्रीय और प्रादेशिक नेताओं के चेहरों का एक संतुलन बनाने का प्रयास होता। भाजपा को समझना होगा कि निराकार चेहरों को आगे करके हर जगह मोदी के नाम पर चुनाव नहीं जीता जा सकता है।
इसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डबल इंजन की सरकार का एक नैरेटिव बनाया है। सोचें, देश में दशकों तक केंद्र और राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें होती थीं लेकिन तब किसी ने विकास के लिए दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकार होने यानी डबल इंजन की सरकार की जरूरत नहीं बताई। लेकिन अब हर जगह डबल इंजन की सरकार की जरूरत बताई जाती है। इसके अगर कुछ फायदे हैं तो नुकसान भी है। डबल इंजन की सरकार डबल एंटी इन्कम्बैंसी भी लाती है। उसकी विफलताएं भी दोहरी हो जाती हैं। लोगों का काम नहीं होता है या उनकी मुश्किलें बढ़ती हैं तो उनकी नाराजगी भी दोहरी होती है। वे डबल इंजन की सरकार को डबल फेल यानी दोगुना अक्षम मानने को मजबूर होते हैं। इससे उनका गुस्सा भी डबल होता है और वे दोहरे जोश के साथ नया विकल्प आजमाते हैं। कम से कम कर्नाटक में तो यही देखने को मिला है।
कर्नाटक नतीजों के बाद भाजपा को अपने चुनावी एजेंडे के बारे में भी गंभीरता से सोचना होगा। उसे समझना होगा कि हिंदुत्व या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने वाले एजेंडे की भी एक सीमा होती है या उसकी भी एक्सपायरी डेट होती है। हर जगह और हर समय यह एजेंडा नहीं चल सकता है। हो सकता है कि सांप्रदायिक रूप से बहुत संवेदनशील राज्यों में या उत्तर, पश्चिम भारत के राज्यों में यह एजेंडा चले क्योंकि लंबे समय तक मंदिर-मस्जिद और जाति की राजनीति की वजह से इन राज्यों के नौजवानों अपनी आकांक्षाएं गवां चुके हैं या उनकी कोई आकांक्षा कभी पनपी ही नहीं है। लेकिन कर्नाटक जैसे आकांक्षी राज्य में, जिसकी राजधानी बेंगलुरू एक समय एशिया के सिलिकॉन वैली की तरह उभरी थी वहां हिजाब पर पाबंदी, हलाल मीट का विरोध, टीपू सुल्तान को किसने मारा की बहस, लव जिहाद की बहस, बजरंग दल का बचाव करना जैसे मुद्दों पर चुनाव लडऩा कोई समझदारी की बात नहीं थी। यह तो कर्नाटक की बात है लेकिन दूसरे राज्यों में भी विभाजनकारी मुद्दे सोच समझ कर उठाने होंगे। एक समय के बाद रोजी रोटी का मसला इन मुद्दों को दबा सकता है।
भाजपा को बड़ी गंभीरता से इस बात पर सोचना होगा कि भ्रष्टाचार पर सिर्फ बात करने से काम नहीं चलेगा और सिर्फ विपक्षी पार्टियों के नेताओं पर केंद्रीय एजेंसियों से छापे मरवा कर उनको भ्रष्ट साबित करने की रणनीति भी हर समय कारगर नहीं हो सकती है। इस तरह की राजनीति की भी सीमा है। अति की हर जगह वर्जना बताई गई है। कर्नाटक में भाजपा की सरकार के ऊपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। लोगों ने राजनीति से निरपेक्ष लोगों के मुंह से 40 फीसदी कमीशन मांगे जाने के आरोप सुने और उन पर भरोसा किया। लोगों ने देखा कि भाजपा विधायक के यहां से आठ करोड़ रुपए नकद पकड़े गए। विधायक के बेटे को रिश्वत मांगने के आरोप में पकड़ा गया। लोगों ने यह भी देखा था कि च्ऑपरेशन कमलज् के तहत कैसे कांग्रेस के विधायकों को तोड़ा गया। क्या लोग नहीं समझते हैं कि टूटने वाले विधायकों को किसी न किसी तरह का लालच दिया जाता है? यह भी तो भ्रष्टाचार का एक रूप है! यह अनैतिक भी है और भ्रष्ट आचरण भी है। इसके अत्यधिक प्रयोग ने भाजपा की छवि को प्रभावित किया है। लोगों को यह सोचने के लिए मजबूर किया है कि ऐसे काम कर तो भाजपा रही है लेकिन कार्रवाई विपक्षी नेताओं के खिलाफ हो रही है।
प्रचार और पैसा चुनाव लडऩे का टूल्स हैं, सिर्फ इनके दम पर भी चुनाव नहीं जीता जा सकता है। भाजपा को यह भी ध्यान में रखना होगा। अगर लोग प्रादेशिक सरकारों के कामकाज से नाराज हैं तो केंद्रीय सरकार के वादे से वह नाराजगी खत्म नहीं हो सकती है। पैसे और प्रचार के दम पर लोगों को चाहे जो भी समझाने का प्रयास हो, उससे नाराजगी दूर नहीं होती है। कर्नाटक में लोग सरकार के कामकाज से नाराज थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हो सकता है कि उनकी नाराजगी नहीं हो लेकिन वे जानते थे कि मोदी को मुख्यमंत्री नहीं बनना है। इसलिए प्रधानमंत्री के इतने सघन प्रचार और भावनात्मक अपील पर भी लोगों ने ध्यान नहीं दिया। सो, भाजपा के लिए एक बड़ा सबक यह है कि वह राज्यों में सरकारों को अच्छा काम करने के लिए प्रेरित करे। इस भरोसे में न रहे कि आखिरी दौर में मोदी आएंगे और सब कुछ बदल देंगे।