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बुलडोजर की राजनीति

अजय दीक्षित
दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) द्वारा महरौली में चलाए गये अतिक्रमण विरोधी अभियान के दौरान उन मकानों को भी तोड़ डाला गया, जिसकी रजिस्ट्री उनके भूस्वामियों या फ्लैट मालिकों के पास मौजूद हैं । बिजली, पानी, गैस के बिल के साथ- साथ सभी वैध पहचान पत्र भी उनके पास हैं । अपने आशियाना को बचाने के लिए जब वो सरकार के खिलाफ सडक़ों पर प्रदर्शन करते हुए दिखाई दिए, तो उनके वेश-भूषा से प्रतीत हो रहा था कि सभी लोग निम्न मध्यमवर्गीय या मध्यम वर्गीय परिवारों से आते हैं। फिर भी उन्हें इस प्रशासनिक अनहोनी का सामना करना पड़ा ।

 यह अतिक्रमण विरोधी अभियान महज एक बानगी भर है । जबकि ऐसे कई अभियान दिल्ली-एनसीआर समेत देश के किसी न किसी हिस्से में आये दिन चलते ही रहते हैं । ऐसे अतिक्रमण विरोधी अभियानों के शिकार प्राय: सभी लोग भारतीय होते हैं, लेकिन इनके खिलाफ भारतीय अधिकारियों का व्यवहार गैर-जिम्मेदाराना दिखाई देता और सुनाई पड़ता है। सवाल है कि आखिर यह सब कब तक चलता रहेगा। उससे भी बड़ा सवाल यह कि आखिरकार ऐसे अतिक्रमण विरोधी अभियान ब्रेक के बाद क्यों चलाये जाते हैं, क्यों नहीं पूरे देश में एक साथ चलाये जाते हैं। वहीं, जिन अतिक्रमणों से सरकारी अधिकारी जानबूझकर मुंह फेर लेते हैं, उनके खिलाफ अतिक्रमण विरोधी अभियान कौन चलाएगा। अनुभव बताता है कि जब तक लोग बाग विकास प्राधिकरण के लोगों, नगर निगम के लोगों, जिला प्रशासन या अनुमंडल प्रशासन के लोगों के इशारे पर उलटफेर करते रहते हैं, तब तक कोई भी अतिक्रमण जायज होता है । लेकिन जैसे ही उस उलटफेर पर सवाल उठने लगते हैं, वह नाजायज हो जाता है ।

नई नवेली अवैध कॉलोनियों, शहरी पार्कों या ग्रीन बेल्ट की जमीनों पर ऐसे अतिक्रमण आम बात बन चुके हैं और उनपर कार्रवाई भी मुंह देखकर की जाती है । पीडब्ल्यूडी की सडक़ों व राजमार्गों व रेल की परिसम्पत्तियों से जुड़े अतिक्रमण का भी यही हाल है । रक्षा मंत्रालय या अन्य केन्द्रीय या राज्य सरकार के विभागों की अनुपयोगी भूमि की बंदरबांट भी कुछ इसी प्रकार होती आई है । इसलिए केन्द्र सरकार, राज्य सरकार और जिला सरकार को ऐसे अतिक्रमणों पर श्वेत पत्र जारी करना चाहिए. अन्यथा पीक एण्ड चूज वाली कार्रवाई बन्द करनी चाहिए । दरअसल, जिस घर में लोग रहते हैं, उसे मैं मानव मन्दिर समझता हूँ, क्योंकि गृह स्वामी और गृह स्वामिनी अपने उसी घर से न केवल अपने बुजुर्गों और बच्चों की परवरिश करते हैं, बल्कि मानव समाज और प्राणी समाज के काम भी वक्त बेवक्त आते रहते हैं । ऐसे ही लोगों से मिलकर यह देश-समाज बनता है।

ऐसे में जब उनमें से कुछ घरों यानि झोपडिय़ों से लेकर मकानों तक पर बुलडोजर चलते हैं और वैसे ही अतिक्रमित देव मन्दिर छोड़ दिये जाते हैं, तो ऐसी दोमुंही विधि-व्यवस्था पर कुछ सवाल उठने लाजिमी हैं । कहा भी गया है कि लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, वो तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में। ये चंद पक्तियां भले ही सामाजिक या साम्प्रदायिक उन्मादियों को लक्षित करके लिखी गईं हों, लेकिन भारतीय संवैधानिक सत्ता को अपने मन के मुताबिक हांकने वाले प्रशासनिक और न्यायिक अधिकारियों, जिनके गुप्त गठजोड़ राजनेताओं-पूंजीपतियों तक से रहते आये हैं, पर भी बड़ी सटीक . बैठती हैं ! क्योंकि हम भारत के लोग के खिलाफ इनका पीक एन्ड चूज वाला जो रवैया है, वह भारतीय संवैधानिक व्यवस्था से बलात्कार नहीं है तो क्या है? सुलगता सवाल है कि यदि यह संवैधानिक तंत्र समाज के अंतिम आदमी व उसके परिजनों के आंख की आंसू जब पोंछ नहीं सकता, तो उसे अपने अवांछित कृत्यों से उन्हें रूलाने का भी कोई नैतिक अधिकार नहीं है, लेकिन यह आजादी के अमृतकाल में भी बदस्तूर जारी है ! देखा जाये तो देश के विभिन्न हिस्सों से अतिक्रमण विरोधी अभियान का जो क्रूर चेहरा सामने वक्त-बेवक्त आया है, वह ब्रितानी शासकों के अत्याचारों को भी पीछे छोड़ चुका है । किसी को भी कहीं से उजाडऩे के पहले उसके पुनर्वास की उचित व्यवस्था करना भारतीय प्रशासन का दायित्व है । ऐसे मामलों में न्यायालय द्वारा भी स्वत: संज्ञान न लिया जाना लोगों के दु:ख-दर्द को बढ़ाने वाला साबित होता है, क्योंकि खर्चीली, दीर्घसूत्री और अपराधियों के बच निकलने वाले तमाम कानूनी छिद्रों के चलते हर कोई भारतीय न्याय व्यवस्था के दरवाजे खटखटाने से पहले सौ बार सोचता है ।

आखिर जब राशन कार्ड, बिजली बिल, पानी बिल, गैस बिल, मतदाता पहचान पत्र आदि वैध दस्तावेज समझे जाते हैं, तो फिर इसके धारक सम्बन्धित भूमि पर अवैध कब्जाधारी कैसे हो गए, प्रशासन खुद आत्मचिंतन, आत्ममंथन करे। इसलिए यदि किसी भी सरकारी या निजी संपत्ति पर अतिक्रमण हुआ है और अतिक्रमणकारी वहां वर्षों से काबिज हैं और सम्पत्ति स्वामी अतिक्रमणकारियों के खिलाफ वर्षों से शिकायत नहीं करते हैं, तो फिर ऐसे जगहों पर वर्षों से बसे लोगों को अचानक उजाड़ देना और उनके समुचित पुनर्वास की व्यवस्था नहीं करना लोगों पर अकस्मात थोपित प्रशासनिक आपदा नहीं है तो क्या है ? सरकार से अपेक्षा है कि वह पूरे देश में अतिक्रमण सम्बन्धी एक श्वेत पत्र जारी करे और एक डेटलाइन तय करे कि इसके बाद अतिक्रमित हुई सरकारी सम्पत्तियों पर चरणबद्ध रूप से सख्त कार्रवाई की जायेगी ।

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