राजनीतिक संघर्ष का अर्थ है कि चूंकि यौन शोषण का आरोपी सत्ताधारी दल का सांसद है और उसे राजसत्ता का संरक्षण भी मिला हुआ दिखता है, तो संघर्ष के निशाने पर धीरे-धीरे सरकार और सत्ताधारी पार्टी का आते जाना एक लाजिमी परिघटना है। चैंपियन पहलवानों का यौन शोषण के खिलाफ संघर्ष का केंद्र बना नई दिल्ली का जंतर-मंतर अब एक सरकार विरोधी राजनीतिक मंच बनता जा रहा है। इसके बावजूद सत्ता पक्ष की यह कोशिश सफल नहीं हो रही है कि वह पहलवानों को विपक्षी दलों के हाथ का ‘खिलौना’ बता दे। इस बिंदु पर राजनीतिक संघर्ष और चुनावी राजनीति के रंग में अंतर को स्पष्ट कर लेना चाहिए। राजनीतिक संघर्ष का अर्थ है कि चूंकि यौन शोषण का आरोपी सत्ताधारी दल का सांसद है और उसे राजसत्ता का संरक्षण भी मिला हुआ दिखता है, तो संघर्ष के निशाने पर धीरे-धीरे सरकार और सत्ताधारी पार्टी का आते जाना एक लाजिमी परिघटना है।
चुनावी राजनीति का रंग तब होता, जब यह लड़ाई किसी पार्टी विशेष से संचालित दिखती और ऐसी धारणा बनती कि इसके जरिए चुनावी समीकरण बनाए जा रहे हैँ। लेकिन हकीकत ऐसी नहीं है। पहलवानों के मंच पर कांग्रेस के नेता पहुंचे हैं, तो अरविंद केजरीवाल ने भी वहां जाकर उन्हें संबोधित किया। इस बीच संयुक्त किसान मोर्चा ने भी उसे सक्रिय समर्थन देने का एलान किया है। किसान आंदोलन के दौरान इस मोर्चा का एक प्रमुख चेहरा बन चुके राकेश टिकैत अपने दल-बल के साथ मंगलवार को जंतर-मंतर पहुंचने का एलान कर चुके हैँ। जबकि जाट समुदाय के कई खापों से जुड़े लोग वहां पहले ही आ चुके हैं।
अब चूंकि राजनीतिक रंग का कार्ड नहीं चला है, तो एक कोशिश इस लड़ाई को जाट बनाम राजपूत (चूंकि आरोपी इस जाति से आते हैं) में बदलने की शुरू हो गई है। हरियाणा की राजनीति के जानकारों ने कहा है कि इसके जरिए वहां जाट बनाम गैर जाट की गोलबंदी मजबूत करने की कोशिश की जा सकती है, जो उस राज्य में भाजपा की राजनीतिक शक्ति का आधार रही है। ऐसी विभाजक कोशिशें नागरिकता संशोधन विरोधी कानून के खिलाफ हुए आंदोलन के दौरान कारगर रही थीं। लेकिन किसान आंदोलन के दौरान इन प्रयासों को अधिक सफलता नहीं मिली। अब पहलवान संघर्ष के दौरान यह देखने की बात होगी कि क्या ऐसी विभाजक रणनीतियां अब बेअसर हो रही हैं? ऐसा होना सत्ता पक्ष के लिए खतरे की घंटी होगी।