अजय दीक्षित
हाल के दिनों में दूध के दामों में लगातार वृद्धि आम लोगों को परेशानी बढ़ाने वाली है। मूल रूप से शाकाहारी भारतीयों के खाने-पीने में दूध की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। छोटे बच्चे से लेकर वृद्धों तक के लिये दूध अपरिहार्य आहार ही है। स्वस्थ से लेकर बीमार तक, लोगों का जीवन बिना दूध के अधूरा है। ऐसे में दूध की कीमतों में वृद्धि आम लोगों का बजट बिगाड़ देती है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि दूध के कारोबार में बड़ी व सहकारी कंपनियों की खासी दखल रही है। अब इस क्षेत्र की बड़ी कंपनियां कीमतों की नियामक बन गई हैं। ऐसी स्थिति में कई भारतीयों के लिये दूध खरीदना टेढ़ी खीर बनती जा रही है। अधिकांश दिल्ली में दूध की सप्लाई करने वाली मदर डेरी ने गत दिसंबर में दूध के दाम में दो रुपये लीटर की वृद्धि की थी, जिसे बीते साल में दामों में हुई। पांचवीं वृद्धि बताया गया। इसके बाद अब दूसरी बड़ी सहकारी दूध कंपनी अमूल ने तीन रुपये प्रति लीटर दाम बढ़ा दिये हैं। उल्लेखनीय है कि इससे पहले गुजरात की इस कंपनी ने नवंबर में भी दूध के दाम बढ़ाए थे।
उपभोक्ताओं द्वारा सवाल अमूल की दोहरी कीमत नीति को लेकर भी उठाये जाते रहे हैं कि क्यों गुजरात व शेष देश में कीमतों में अंतर होता है? क्या इसके राजनीतिक निहितार्थ है? किसी उत्पाद की राष्ट्रीय स्वीकार्यता के आलोक में इसे देखा जाना चाहिए। वैसे तो देश भर में दूध के दामों में वृद्धि के मूल में मांग व आपूर्ति का असंतुलन बताया जाता रहा है। गाय-भैंस के चारे के दामों में वृद्धि ने भी दूध उत्पादकों का मुनाफा कम किया है। जहां महंगाई की मार चारे पर पड़ी है, वहाँ खेती के ट्रेंड में आये बदलाव से अब तक सहज उपलब्ध चारा मुश्किल से मिलता है। पहले जो पराली आदि पालतू जानवरों के लिये सहज उपलब्ध थी, उसे किसान अब खेतों में यूं ही जला देते हैं। वैसे जहां कंपनियां दूध के दामों में वृद्धि के पीछे लागत में वृद्धि बता रही हैं, वहीं मांग व आपूर्ति का असंतुलन भी दाम बढऩे का बड़ा कारक है। खेती- पशुपालन के प्रति नई पीढ़ी का घटता रुझान और खेती योग्य जमीन के बड़े पैमाने पर व्यावसायिक उद्देश्य, भवन निर्माण व अन्य कार्यों के लिये इस्तेमाल से कृषि भूमि का संकुचन हुआ है। जिसका असर पशुपालन पर भी हुआ है। बताते हैं कि आम भारतीय के खाने पर होने वाले मासिक खर्च का बीस फीसदी दूध व उसके उत्पादों पर होता है। गांवों के मुकाबले शहरों में दूध की उपलब्धता में कमी के चलते यह खर्च बढ़ जाता है। यूं तो पिछले दशक में समाज के हर वर्ग में दूध व उसके उत्पादों का उपयोग बढ़ा है, लेकिन उस अनुपात में आपूर्ति नहीं बढ़ी। पिछले दिनों कई राज्यों में लंपी रोग से लाखों गायों के मरने का भी दूध की आपूर्ति पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। वहीं भैंसों में मुंह खुर रोग का असर देखा गया है।
बहरहाल, उत्पादन में कमी के बावजूद बाजार में दूध, उससे बने उत्पादों तथा मिठाइयों में कोई कमी नजर नहीं आती। ऐसे में सवाल उठता है कि बाजार में दूध की बहार कैसे है? कैसे आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक बना हुआ है? क्या इसमें बड़ी भूमिका रासायनिक व मिलावटी दूध की है? वैसे भी जिस पैमाने पर दूध की जांच जिम्मेदार विभाग द्वारा की जानी चाहिए थी, वह नहीं हो रही है। निगरानी करने वाले तंत्र की पांचों उंगलियां घी में -रहती हैं और कृत्रिम दूध आपूर्ति करने वालों की पौ-बारह। वहीं दुग्ध उत्पादक लगातार चारे की मुद्रास्फीति की बात कहते रहे हैं। वैसे सरकारों के स्तर पर दूध उत्पादन बढ़ाने और इस दिशा में शोध अनुसंधान को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। ऐसे में सवाल है कि दुनिया में सबसे बड़ी आबादी होने की ओर बढ़ रहे देश के लिये दूध की सामान्य आपूर्ति हो सकेगी? सरकार को यथा शीघ्र ऐसे कदम उठाने होंगे कि दुग्ध उत्पादकों को सही कीमत मिल सके और उपभोक्ता को गुणवत्ता का दूध ।