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आई चुनावी ऋतु, आ अब लौट चलें…

वे पांच साल तक सत्ता का उपभोग कर राजधानी के सरकारी आवास में मुफ्त की सुविधाओं का लुफ्त लेते रहे, अब जबकि चुनाव सन्निकट है, वे जनता की ओर लौटने का मन बना रहे हैं। हालांकि, कमरतोड़ महंगाई से आम जनता की कंडीशन बिगड़ती रही, मगर उन्होंने अपने एयर कंडीशन आशियाने से बाहर आने की जहमत नहीं उठाई।
पढ़े-लिखे नौजवान स्कूल-कॉलेजों में लाखों की फीस भरने के बाद नौकरी की गुहार लगाते रहे। भूखे-प्यासे धरने पर बैठे रहे, लेकिन बेरोजगारों को अपने हाल पर छोड़ दिया गया।

देश का किसान कभी प्रकृति की मार से तो कभी फसलों के औने-पौने दाम से परेशान होता रहा, पर उन्होंने संवेदनशीलता नहीं दिखाई।लोकतंत्र में चुनाव एक आवश्यक प्रक्रिया है, और हर पांच साल में जनता अपने मताधिकार का उपयोग करती है, इसलिए तमाम दूरियों और असमानता के बावजूद जनता के बीच जाना उनकी मजबूरी है। इसलिए न चाहते हुए भी तंग बस्तियों, धूल भरी सडक़ों और गांव की गलियों की ओर लौटना ही पड़ता है।पांच बरस पहले जिन वादों को लेकर वे क्षेत्र के लोगों के बीच गए थे, वे रह-रह कर उनकी स्मृति में आ रहे हैं। इसके लिए अबकी बार वे नये वादों के साथ-साथ भावनात्मक मायाजाल का भी सहारा लेने से नहीं चूक रहे हैं। जहां जाते हैं, वहीं के मूल निवासी बनने का पूरा प्रयास करते हैं। कई बार तो वे अपनी आधी उम्र के मतदाताओं के चरणों में नतमस्तक हो जाते हैं, अनजान लोगों के बीच बैठकर लम्बी चर्चा करने लगते हैं। जो हमेशा आरओ का बोतल बंद पानी को ही हाथ लगाते हैं, वे आजकल वोट की गुहार करते-करते रास्ते में सडक़ किनारे की प्याऊ से प्यास बुझाते देखे जा सकते हैं।इतना ही नहीं, उनको वोट के लिए राह चलती बारात में थिरकते हुए भी देखा जा सकता है।

कड़ी धूप में जलसों का प्रतिनिधित्व भी बिना किसी शिकन के करते हुए पाये जाते हैं। शोकसभा हो या शवयात्रा, अपनी उपस्थिति सोशल मीडिया पर अवश्य साझा कर कृत्रिम संवेदना व्यक्त करने में पीछे नहीं रहते हैं।अब चूंकि चुनाव का शंखनाद हो चुका है, वोटों की फसल काटने का मौसम जोरों पर है, इसलिए वे भी आम जनता के बीच लौटने को आतुर हैं, ताकि फिर से जनता के रहनुमा बनकर अपनी राजनीतिक जमीन को बचा सकें। यही कारण है कि वे अब जनता के बीच जाने का पूर्ण मन बना चुके हैं, ताकि लोकतंत्र के साथ-साथ अपनी जड़ें भी मजबूत कर सकें।

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